तुम रचते हो;
यातना से दृष्टि पा कर,
सिसकियों से शब्द ले कर,
लेखिनी में लोहित स्याही भर कर |
मेरे वर्य, महान चित्रकार,
तुम रचते हो;
रंग रंग में जल अश्रु का मिला कर,
छवि के हर उभार में पीड़ा को सींच कर
हर चित्र के पीछे अविरत परिश्रम प्रवास कर |
मेरे मनोहर, शिल्पकार
तुम रचते हो;
शिल्प अनेक अनोखे, जीवन सभर,
अपने ही हाथों, अपनी मृतिका को,
रोंद कर, तोड़ कर, मोड़- मरोड़ कर |
तुम सारे, कलाकार
तुम, सत्य के शोधक
तुम, सृष्टि के चाहक
संसार के तिमिरमय रंगमंच पर
तुम, दीप्ति का साधन, लौ भर |
और में ? में तुम्हारा परिचित,
अवगत तुम्हारी घुटन से,
तुम्हारी भटकन से,
तुम्हारे अकेलेपन से,
तुम्हारे पागलपन से |
क्या तुम जानते नहीं ?
तुम्हारी यातना, कला की माँग नहीं,
परिणाम हैं प्रतिकूल परिस्थियों का
जिनसे तुम्हे झुझना पड़ता हैं |
जिनका प्रतिकूल होना कोई जरूरी नहीं |
परिस्थितिया, जो कचोटती हैं,
तुम्हारे अस्तित्व को,
तुम्हारे निक्कमेपन के लिए |
कह कर की पहले कीमत चुकाओ,
ढेर सा पैसा पहले कमा कर दिखाओ |
क्या तुम जानते नहीं ?
तुम्हारी कटु वेदना के मूल में,
सत्य नहीं, सत्य की शोध भी नहीं,
बल्कि, सत्य का निरर्थक होना हैं !
सत्य की शोध का व्यर्थ होना हैं !
पाखंड हैं, की सत्य सुन्दर हैं,
की सत्य में जीत हैं,
की सत्य चिरंजीव हैं,
अरे, सत्य का मूल्य तो
दो फूटी कौड़ी भी नहीं |
ढकोसला हैं, कला का आदर,
कलाकार का सन्मान,
असल में महा पाप हैं कला,
और स्थान हैं कलाकार का
हलाहल नर्क में सदा |
अब से अपनी रचनाओं का
प्रकाशन नहीं, प्रदर्शन करो,
अपनी कला कारीगरी से,
जनता का मनोरंजन करो,
ज्ञान का उपयोग कर के,
व्यक्तित्व की बनावट करो |
मूर्ख नहीं, बनो कलाकार नए
पहनलो कवच, चेहरे नए
आगे बढ़ो फिर, फिर एक बार
पर सत्य नहीं, अब कला नहीं
अब सोना सोना सोना खोजो |
तुम्हारी अवश्य जय होगी,
पत्रिकाओ के पहले पन्ने पर,
तुम्हारे जय की खबर होगी
पुरस्कार मिलेंगे, तुम्हारे जीते जी
प्रशंसको की लम्बी कतार होगी |