एक युवा सा वन- झरना,
सुन्दर सी झील के अन्दर,
समाने की अभिलाषा,
ले कर हैं बह रहा |
बीच सफ़र पड़ी नजर,
तरुण धरा पड़ी थी बंजर,
सतह पर उसकी बनी थी दरारे,
उसपर सूखे हुए तृणदल सारे,
झरना बढ़ चला उस तरफ |
छेदों - दरारों से हो कर,
सलिल भीतर उतर रहा,
झरना धरा को भिगौ रहा,
द्रवित हो रहा रोम रोम,
जल खुद, मानो पिघल रहा |
अंतर में संची प्रतिकण की,
सुवास के संग धरती,
सलिल को समर्पित हो रही |
झरना वसुंधरा चूम रहा,
धरा ने झरना गह लिया |
परस्पर मधुरता घुलती रही,
मंद सिरहन और आल्हाद,
अनुभव कर रहे उन्माद,
विलास- ज्वार चढ़ता रहा,
पराकाष्ठा की ओर बढ़ता रहा|
गतिशील झरना स्थिर हुआ,
जैसे सारा संघर्ष बीत गया,
धरती के पहेलु में रुक कर,
यौवन का आनंद मिला,
सुख शायद पर्याप्त मिला |
बंजर सी, धरा अब हैं सजी
सरल थी, सुडौल झील बनी
बहता झरना, बना झील का नीर
सुर्खकण पर्ण तृण स्निग्ध सारे
लताओं पर खिले हैं मुकुल प्यारे |