आकाश मखमली मेघ भरा,
क्षितिज पर पलाश बिखरा,
सिंदूरी हैं अभ्र पर बिल्कुल खाली, सिंधोरा |
नीर संग काजल बह आता,
काले मनको की बहती धारा,
पिरोती हूँ, पर नहीं बनती मंगल-माला |
बिना मेहँदी महावर, फीकी हथेलिया,
बिना अनुराग रंग कब हैं निखरता?
विधिने लकीरों में, चाहत से भरी हैं कालिमा |
बसन्त आये भी तो बीहड़ो में नहीं खिलता,
टूटे शिवालो में अगर आये भी मुसाफिर,
तो विश्राम के खातिर, वहा घर नहीं हैं बसता |